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घूंघट के पट खोल
वैसे तो महेश्वर शिव के सृष्टि भाव और दया भाव के अन्तर्गत ही जीव और जगत् की समस्त स्थितियॉ हैं परन्तु व्यक्ति या शिष्य का कर्ता भाव शिव की सम्पूर्ण स्थिति के बोध से अनभिज्ञ रहता हैं।
भावार्थः-
भारतीय आध्यात्मिक धारा के प्रवाह को यदि गंभीरता से देखाजाए तो पता चलेगा कि भगवान् शिव की परिकल्पना ईश्वर के रूप् में की गई हैं। शिव को ईश्वर तथा महेश्वर शब्द की उपाधि से विभूषित किा गया है। ईश्वर और शिव दोनों शब्द एक की सता के वाच्य है। जैसे आत्मा और परमात्मा।
संस्कृत का यह श्लोक इस स्थिति को स्पष्ट करता हैः-
तव तत्वं न जानामि कीदृशोळसि महेश्वरः।
यादृशोळसि महादेवः तादृशाय नमो नमः।।
इस श्लोक की प्रथम पंक्ति महेश्वर को संबोधित है और दुसरी पंक्ति उसी महेश्वर को महादेव कहती है। उपनिषद् कहती है ’’ इच्छा मात्र प्रभो सृष्टि ’’ अर्थात् पूरी सृष्टि , जीव और जगत् उसी ईश्वर की इच्छा से सृष्ट हैं यह उस मरमात्मा की सृष्टि की इच्छा है। सृष्टि का शाश्वत नियम है वह नष्ट होती हे और उसके काल का निर्धारण हो सकता है। सृष्टि और विनाश का कार्य पल-प्रतिपल चल रहा है । स्पष्टतः उसी परमात्मा की उर्जा से कण-कण चलायमान है। कहा गया है कि शिव की दया शिष्य को शिव बनाती है। इसी दया भाव को गुरू भाव कहा जाता है। शिव की इच्छा से समस्त सृष्टि हुई है और उसी की दया से पुनः जीव शिव बनता है । इसी स्थिति को ’’ शिष्यानुभूति’’ में दर्शाया गया है कि ’’ महेश्वर शिव के सृष्टि भाव और ादया भाव केेेेेेेेेेेेेेेेेेे अन्तर्गत ही जीव और जगत् की समस्त स्थितियॉ हैं।’’ कहा गया है कि शिव अपनी एकादश रूद्रात्मिका शक्तियों द्वारा जीव को रूलाते और योनिमुक्त करते है। इस पंक्ति का भी निहितार्थ उनकेेेेे दया भाव से ही है। यहॉ रूलाने का अथर््ा है व्यक्ति केेेेे कर्म फल जो उसके लिए दुखदायी होते हैं, शिष्यभाव की स्थिति में शिव गुरू की दया से शिव की ओर चलने में उत्प्रेरक का कार्य करतें हैं और शनैः-शनैः शिष्य जीव भाव के बन्धनों से मुक्त होता जाता है।
जगतगुरू शिव तो दया केे अक्षय स्रोत हैं किन्तु मनुष्य में आयी जीवात्मा अपने कर्ता बोेध के कारण शिव के अस्तित्व का बोध नहीं कर पाती हैै। व्यक्ति के मैंपन का अतित्व जैसे-जैसे शिव के अस्तित्व का अनुभव करता है, शिवगुरू की दया का पात्र बनता जाता है। मनूष्य की अपनी पृथक् स्थिति के कारण सद्गुरू की तलाश आवश्यक हो जाती है और इस दिशा में उसे प्रयास करना होता है। उक्त प्रयास में उसके गुरू की दया परिणाम की ओर ले जाती है।
साहब श्री हरीन्द्रानन्द जी
से संवाद पर आधारित श्रुतिलेख: निहारिका

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